अयोध्या पर लखनऊ और 30 सितंबर का संयोग एक बार फिर इतिहास बनाने जा रहा है। ढांचा ध्वंस मामले की सुनवाई कर रही सीबीआई की विशेष अदालत ने इस मामले में निर्णय सुनाने की तारीख 30 सितंबर तय की है। अदालत का निर्णय जो भी आए, लेकिन लखनऊ और 30 सितंबर का संयोग अयोध्या के राम मंदिर से जुड़े घटनाक्रम के इतिहास में मोटे अक्षरों में दर्ज हो जाएगा।
दरअसल, 30 सितंबर 2010 को ही इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ ने भी अयोध्या मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया था। उसने मूर्तियों वाले स्थान को राम जन्मभूमि मानते हुए निर्णय दिया था। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल, न्यायमूर्ति एसयू खान और न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा की पीठ के फैसले में सीता रसोई वाला हिस्सा निर्मोही अखाड़े को दिया गया था और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को।
इसलिए था महत्वपूर्ण
कई दशकों से चल रहे इस राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में किसी न्यायालय का यह पहला निर्णय था, जो इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ से 30 सितंबर 2010 को आया था। हालांकि, इस निर्णय के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील हुई। इस पर सुनवाई करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले वर्ष 9 नवंबर को संबंधित स्थल को श्रीराम जन्मभूमि मानते हुए हिंदुओं के पक्ष में फैसला सुनाया। पर, अपील होने के बावजूद जब-जब अयोध्या मामले का जिक्र होगा, तब-तब 30 सितंबर 2010 और लखनऊ का उल्लेख हुए बिना नहीं रहेगा।
ये निर्णय भी होगा खास
ढांचा ध्वंस के लगभग 28 साल बाद आगामी 30 सितंबर को आ रहे अदालत के फैसले से भले ही मौजूदा राजनीतिक स्थिति पर कोई फर्क न पड़े क्योंकि सामान्यतया इस मामले में आरोपियों में से कोई भी इस समय भाजपा सरकार में महत्वपूर्ण पद पर नहीं है। बावजूद इसके फैसले से सियासी सरगर्मी बढ़नी तय है। पक्ष-विपक्ष इस निर्णय के सहारे एक-दूसरे को घेरने की कोशिश करेंगे। इस मामले में आरोपी लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, विनय कटियार, उमा भारती जैसे नेता यदि बरी हो जाते हैं तो भाजपा इस मामले में विपक्ष को घेरेगी। निर्णय कुछ अलग आता है तो विपक्ष की तरफ से भाजपा को घेरने की कोशिश तय है।
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